Monday, December 27, 2010

वो कोई और नहीं

वो कोई और नहीं तू  ही था ख्वाबों में मेरे 
रोज आता था तू  भूली हुई यादों में मेरे
उम्र को मेरी  दो चार घड़ी और बढ़ा देती है
जाने क्या बात है झूठे  ही वादों में तेरे 
वो जो मुमकिन नहीं मै  उसका तलबगार हू  क्यू
जिद झलकती है मुहब्बत के इरादों में मेरे
इल्लते-इश्क का मारा हू कुछ रहम तो करो
तमाम उम्र फ़ना कर दिया यादों में तेरे
यकीं नहीं है अगर जा उलट के देख जरा
मिलेंगे मेरे ही ख़त अब भी किताबों में तेरे 
वो कोई और नहीं तू  ही था ख्वाबों में मेरे 
रोज आता था तू  भूली हुई यादों में मेरे