Monday, October 11, 2010

हँस ले जरा

हँस ले जरा ,ये आज फिर हँसने की घड़ी है
रोने के लिए तेरी सारी उम्र पड़ी है.
तू ढूढ़ता है क्यों वफ़ा इस दौर में यहाँ
ये गुजरी हुई रश्म किताबो में पड़ी है
मरने का हौसला है गर तो कर ले इश्क तू
वो देख तेरे दर पे आके मौत खड़ी है
पुरनम है चाँद और खुशनसीब चांदनी
फिर भी मेरी दुनिया ये क्यूँ वीरान पड़ी है

3 comments:

  1. "ला-जवाब" जबर्दस्त!!
    शब्दों को चुन-चुन कर तराशा है आपने ...प्रशंसनीय रचना।

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  2. बहुत खूब .... आपकी ये रचना दिल को छु गयी !

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